परिभाषा: वर्तनी शब्द का अर्थ है- अनुसरण करना, अर्थात पीछे-पीछे चलना। भाषा के उच्चरित रूप या बोलने में जो कहा जाता है अथवा उच्चरित किया जाता है, उसी के अनुरूप या अनुसार लिखा भी जाता है; इसे ही वर्तनी कहते हैं। भाषा का लिखित रूप वर्तनी की सहायता लेता है। अतः भाषा के उच्चरित रूप को उसी रूप में लिपिबद्ध करना ‘वर्तनी’ कहलाता है।
लिखने की रीति को ‘वर्तनी‘ या ‘अक्षरी‘ कहते हैं। इसे ‘हिज्जे‘ भी कहा जाता है। वर्तनी का सीधा संबंध ‘भाषागत ध्वनियों के उच्चारण’ से होता है।
• हिन्दी में जो बोला जाता है वही लिखा जाता है।
• व्याकरण संबंधी ज्ञान की कमी के कारण उच्चारण में अशुद्धियां आ जाती है।
• उच्चारणगत् त्रुटियों का कारण है – उच्चारण-स्थल का सही ज्ञान न होना उच्चारण
• वर्तनी का सबसे बड़ा आधार है– लिखने की रीति को वर्तनी
• किसी भी भाषा में वर्तनी की एकरूपता स्थिर की जाती है -ध्वनियों को सही ढंग से उच्चरित करने के लिए
• वर्तनी का सीधा सम्बन्ध है -भाषागत ध्वनियों के उच्चारण से
• बोलते समय उच्चारण की स्पष्टता के लिए किसी अक्षर पर विशेष बल देने की क्रिया को कहते हैं – बलाघात
• वर्तनी से तात्पर्य है- शब्दों में वर्णों का सुनिश्चित क्रम |
वर्तनी का महत्व
वर्तनी की सहायता से युग-युगों से संचित ज्ञान हमें आज भी लिखित रूप में प्राप्त होता है।
वर्तनी के द्वारा लिपिबद्ध साहित्य और ज्ञान-विज्ञान देश की सीमाओं को भी लांघता है और सभी को सुलभ हो जाता है।
वर्तनी के माध्यम से दूरस्थ लोगों में पत्र और संदेश का आदान-प्रदान होता है।
वर्तनी की एकरूपता
वर्तनी की एकरूपता से भाषा का मानक रूप स्थायी बनता है तथा इसमें भ्रांतियों के अवसर नहीं रहते हैं।
वर्तनी की सहायता से भाषा लिखित रूप प्राप्त करती है। यदि वर्तनी अशुद्ध हो तो स्वाभाविक है, कि भाषा भी अशुद्ध होगी तथा इससे भाषा की मानकता प्रभावित होगी।
वर्तनी में अनुद्धि के विशेष कारण होते हैं। जैसे- (1.) लिपि के संबंध में पूर्ण ज्ञान न होना, (2.) व्याकरण का ज्ञान न होना, (3.) शुद्ध उच्चारण न करना आदि
हिंदी वर्तनी के कुछ आवश्यक नियम
(1.) कारक तथा उनके चिह्न (विभक्ति चिह्न)
लिखने में कारकों की विभक्तियाँ अन्य शब्दों से जोड़कर नहीं, अपितु अलग लिखनी चाहिए। जैसे- मोहन ने – कर्ता कारक, सोहन को – कर्म कारक आदि।
सर्वनाम में विभक्तियाँ जोड़कर लिखी जाती हैं। जैसे- उसने, मुझसे, उसको, मेरा आदि।
(2.) निपात-शब्द या अव्यय
यदि सर्वनाम और विभक्ति के बीच निपात जैसे- ही, को आदि आ जाएँ, तो उन्हें अलग लिखा जाता है। जैसे- (क) मैं आप ही के लिए लाया हूँ। (ख) उस हीसे मुझे यह समाचार मिला।
कुछ अव्यय शब्द पृथक लिखे जाते हैं, यथा – ‘तक’ और ‘साथ’ (मेरे साथ, वहाँ तक)।
आदरसूचक अव्यय ‘श्री’ और ‘जी’ भी अलग लिखे जाते हैं। उदाहरणार्थ- श्री राम, रोशनलाल जी।
जिन अव्ययों के साथ विभक्ति चिह्न आते हैं, वे चिह्न भी अलग लिखे जाते हैं। यथा- यहां से, सदा से, तब से।
(3.) संयुक्त और सहायक क्रिया
संयुक्त क्रिया और सहायक क्रिया को एक साथ नहीं, अपतिु पृथक् लिखना चाहिए। जैसे- (क) मोहन जा सकता था। (ख) वे आ सकते थे।
पूर्वकालिक क्रियाएँ एक शब्द के रूप में मिलाकर लिखते हैं। यथा- खा पीकर, रो रोकर, पढ़कर, सोकर
कभी-कभी इनके बीच में योजक का प्रयोग अधिक स्पष्टता के लिए किया जाता है। जैसे- पढ़-लिखकर, रो-रोकर, खा-पीकर
(4.) योजक चिह्न का प्रयोग
से, सा, जैसा आदि शब्द यदि उपमा या गुणों की समानता प्रकट करने के लिए आते हैं, तो उनमें योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे–
(क) हरिश्चंद्र-सा सत्यवादी। (ख) लक्ष्मीबाई- जैसी स्त्री। (ग) द्वंद्व समास में योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- माता-पिता, रात-दिन, भाई-बहन आदि।
प्रायः तत्पुरूष समासों में हाइफन या योजक चिह्न की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे- नगरवासी, बलिवेदी, गंगाजल आदि। यदि भ्रम उत्पन्न होने की संभावना हो, तो हाइफन लगाते हैं जैसे- भू-तत्व।
(5.) संस्कृत से जो तत्सम शब्द हिंदी में आए हैं, उन्हें उसी रूप में लिखा जाना चाहिए। जिन शब्दों को हिंदी में हलंत रहित कर दिया गया है, उनमें संस्कृत के आधार पर पुनः हलंत लगाना आवश्यक नहीं है। यथा
(3.) संयुक्त और सहायक क्रिया
संयुक्त क्रिया और सहायक क्रिया को एक साथ नहीं, अपतिु पृथक् लिखना चाहिए। जैसे- (क) मोहन जा सकता था। (ख) वे आ सकते थे।
पूर्वकालिक क्रियाएँ एक शब्द के रूप में मिलाकर लिखते हैं। यथा- खा पीकर, रो रोकर, पढ़कर, सोकर
कभी-कभी इनके बीच में योजक का प्रयोग अधिक स्पष्टता के लिए किया जाता है। जैसे- पढ़-लिखकर, रो-रोकर, खा-पीकर
जगत् (संस्कृत में)
जगत (हिंदी में)
महान् (संस्कृत में)
महान (हिंदी में)
विद्वान् (संस्कृत में)
विद्वान (हिंदी में)
संस्कृत के कुछ तत्सम शब्द, जो उसी रूप में हिंदी में अपनाए गए हैं, उन्हें उसी प्रकार लिखना चाहिए। ब्रह्म, उऋण, गृहीत, अत्यधिक, चिह्न, अनधिकार, प्रदर्शनी आदि।
(6.) अशुद्ध उच्चारण के कारण वर्तनी की अशुद्धियाँ
(1.) इ-ई से संबंधित
अशुद्ध
शुद्ध
रवी
रवि
शांती
शांति
(2.) उ-ऊ से संबंधित – रूप (रूप), गुरू (गुरू)
(3.) स के स्थान पर श – प्रसाद (प्रशाद), शासक (शाशक)
(4.) श के स्थान पर स – शायद (सायद), शब्द (सब्द)
इनमें कोष्ठक में लिखे रूप अशुद्ध हैं।
(5.) ण के स्थान पर न – प्रनाम, गुन (यहां ध्यान रखना चाहिए कि ‘ण‘ का प्रयोग संस्कृत के तत्सम शब्दों में होता है और ‘न‘ का प्रयोग हिंदी में तद्भव शब्दों में किया जाता है।)
(6.) व के स्थान पर ब – ब्यापार, बीणा, बर्षा।
(7.) ढ और ढ़ का प्रयोग – ढ़ का प्रयोग प्रायः शब्द के आरंभ में नहीं होता है। जैसे- पढ़ना, गढ़ना।
(8.) ई-यी-ई के उच्चारण के कारण कुछ शब्दों के अंत में ‘यी’ के स्थान पर ‘ई’ का प्रयोग होता है; जबकि होना ‘यी’ ही चाहिए। जैसे- स्थायी, वाजपेयी, उत्तरदायी आदि।
(9.) इ और ई- वाक्य के अंत में यदि ‘ई’ के बाद कुछ जोड़ा जाए और यदि शब्द बहुवचन बने, तो ई को इ बना देते हैं। जैसे- लड़की लड़कियाँ विद्यार्थी विद्यार्थियों
(10.) उ और ऊ- इसी प्रकार वाक्य के अंत में यदि ‘ऊ’ के बाद कुछ जोड़ा जाए तो ‘ऊ’ का ‘उ’ हो जाता है। जैसे- साधू-साधुओं, डाकू-डाकुओं
(7.) अनुनासिक और अनुस्वार
अब अनुनासिक का प्रयोग अधिकांशतः उन शब्दों में किया जाता है, जिनमें शिरोरेखा के ऊपर कोई और मात्रा नहीं लगाई जाती है। जैसे- हँसना, ऊँगली, आँख, गँवार, साँस, ऊँट आदि।
यदि शिरोरेखा के ऊपर अन्य मात्रा लगाई गई हो, तो अनुस्वार के स्थान पर अनुनासिक का प्रयोग किया जाता है। जैसे- मैँ को मैं, ईँधन को ईंधन, सेँकना को सेंकना
(8.) श, स और ष के प्रयोग में अशुद्धियाँ
‘श’ की ध्वनि तालव्य है, ‘ष’ की ध्वनि मूर्धन्य है और ‘स’ की ध्वनि दंत्य है। अतः इनके शुद्ध उच्चारण से वर्तनी की अशुद्धि दूर की जा सकती है। निम्न नियमों को ध्यान में रखकर इनके सही प्रयोग को जान लेना चाहिए-
(1.) यदि क, ख, प, फ तथा ट और ठ वर्णों से पहले विसर्ग हो, तो वह ‘ष‘ में बदल जाता है। जैसे- निः + पाप = निष्पाप, निः + फल = निष्फल
(2.) यदि ‘क’ वर्ग तथा ‘अ’ और ‘आ’ को छोड़कर कोई अन्य स्वर अथवा य, र, ल, व, ह में से कोई वर्ण हो तो ‘स’, ‘ष’ में बदल जाता है। जैसे – वि + सम = विषम, अभि + सेक = अभिषेक।
(3.) संस्कृत के तत्सम शब्दों का ‘श’ तद्भव में ‘स’ बन जाता है। जैसे- शूली-सूली
(4.) ‘च’ और ‘छ’ वर्ण से पहले प्रायः ‘श’ का ही प्रयोग होता है। जैसे – निश्च्छल, निश्चय।
(5.) इसी प्रकार ऋ के बाद तथा ‘ट’ वर्ग से पहले ‘ष’ ही आता है। जैसे- ऋषि, कृषि, कष्ट, दुष्ट, अन्वेषण, षडानन आदि।
(6.) शब्द और पदों में यदि ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ साथ हों, तो उनका क्रम वर्णमाला के ही अनुसार होता है। जैसे- शासक, प्रशंसा, शोषण।
(7.) ‘ष’ का प्रयोग प्रायः संस्कृत के पदों और मूल धातुओं में मिलता है। यथा- संतोष, भाषा, शिष्ट, षटकोण।
(8.) समस्त पदों में यदि दो से अधिक शब्द साथ हों, तो योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- राज-भक्ति, जन्म-दिन, गृह-विज्ञान और मन-वचन-कर्म, रवि-शशि-नक्षत्र।
(9.) द्वित्व अक्षरों की अशुद्धियाँ
सभी वर्णों के दूसरे और चैथे अक्षर द्वित्व रूप में नहीं लिखे जाते हैं। जैसे-
अशुद्ध
शुद्ध
अछ्छा
अच्छा
बुध्धि
बुद्धि
मुठ्ठी
मुट्ठी
सामान्य अशुद्धियाँ | Ashudh or Shudh Vartani
(1.) अनुस्वार संबंधी
अशुद्ध
शुद्ध
कन्टक
कंटक
कन्ठ
कंठ
गन्जा
गंजा
कन्घी
कंघी
गन्गा
गंगा
ग्रण्थ
ग्रंथ
चण्द्र
चंद्र
प्रशन्सा
प्रशंसा
सन्यम
संयम
सम्वाद
संवाद
सन्सकार
संस्कार
आरम्भ
आरंभ
इन्फल
इंफल
अन्श
अंश
अण्धा
अंधा
पन्खा
पंखा
पन्छी
पंछी
झन्झट
झंझट
पन्चवटी
पंचवटी
मुन्बई
मुंबई
सण्तान
संतान
सम्वत्
संवत
सन्लग्न
संलग्न
(2.) अनुनासिक संबंधी अशुद्धियाँ
अशुद्ध
शुद्ध
आंच
आँच
आंख
आँख
ऊंचा
ऊँचा
चंवर
चँवर
पहुंच
पहुँच
जाऊंगा
जाऊँगा
फंसना
फँसना
मंझधार
मँझधार
हंस (पक्षी)
हँस (हँसने की क्रिया)
स्वांग (अपना अंग)
स्वाँग (नकली रूप जोड़कर)
आंसू
आँसू
चांद
चाँद
पांव
पाँव
बंधी
बँधी
मांस
माँस
यहां
यहाँ
हूं
हूँ
दांत
दाँत
मंजा
मँजा
रंगाई
रँगाई
आंगन
आँगन
अंगरखा
अँगरखा
अँगरक्षक
अंगरक्षक
(3.) अक्षर संबंधी अशुद्धियाँ
(I.) ई और यी की अशुद्धियाँ
अशुद्ध
शुद्ध
अन्याई
अन्यायी
विजई
विजयी
मितव्यई
मितव्ययी
विषई
विषयी
प्रणई
प्रणयी
स्थाई
स्थायी
कयी
कई
नयी
नई
गयी
गई
गायी
गाई
चिकनायी
चिकनाई
हलवायी
हलवाई
(II.) मात्रा और अक्षर संबंधी अशुद्धियाँ
अशुद्ध
शुद्ध
अनिष्ठ
अनिष्ट
घनिष्ट
घनिष्ठ
अय्यस्थ
अय्यस्त
ईर्षा
ईष्र्या
अध्यन
अध्ययन
अत्योक्ति
अत्युक्ति
विपति
विपत्ति
अवन्नति
अवनति
सन्मुख
सम्मुख
यथेष्ठ
यथेष्ट
कनिष्ट
कनिष्ठ
जेष्ट
ज्येष्ठ
उपलक्ष
उपलक्ष्य
पृष्ट
पृष्ठ
जनम
जन्म
संघार
संहार
पश्चात्ताप
पश्चाताप
भैय्या
भैया
चड़ना
चढ़ना
सहस्त्र
सहस्र
सन्यासी
संन्यासी
सैना
सेना
अधार
आधार
उपरोक्त
उपर्युक्त
अधिकारिगण
अधिकारीगण
मूड़
मूढ़
शैया
शय्या
शारिरक
शारीरिक
हिन्दूस्तान
हिंदुस्तान
स्याम
श्याम
श्राप
शाप
दुर्गुन
दुर्गुण
नारि
नारी
तत्व
तत्व
(III.) श्, ष्, स् लगाने की अशुद्धियाँ
अशुद्ध
शुद्ध
अभिषाप
अभिशाप
आवष्यक
आवश्यक
नमश्ते
नमस्ते
युधिशिठर
युधिष्ठिर
विषेस
विशेष
पुरूश
पुरूष
दुश्तर
दुस्तर
दुश्यंत
दुष्यंत
वेस
वेष
अभिशेक
अभिषेक
आस्चर्य
आश्चर्य
निश्कपर
निष्कपट
विश
विष
निश्फल
निष्फल
देस
देश
विसम
विषम
विदुशी
विदुषी
शुशील
सुशील
(IV.) संधि संबंधी अशुद्धियाँ
अशुद्ध
शुद्ध
अत्योक्ति
अत्युक्ति
तदानुसार
तदनुसार
देव्यार्पण
देव्यर्पण
अधोपतन
अधःपतन
दुरोपयोग
दुरूपयोग
हस्ताक्षेप
हस्तक्षेप
तदोपरांत
तदुपरांत
दुस्कर
दुष्कर
विसाद
विषाद
उपरोक्त
उपर्युक्त
दुरावस्था
दुरवस्था
सदोपदेश
सदुपदेश
अत्याधिक
अत्यधिक
अत्योपयोगी
अत्युपयोगी
उच्छास
उच्छवास
निरोग
नीरोग
निर्पेक्ष
निरपेक्ष
किम्वदंती
किंवदंती
97
DenverSingh
Class 5 Addition and Subtraction of Decimal Numbers Worksheets
Anek Shabdon Ke Liye Ek Shabd अनेक शब्दों के लिए एक शब्द
परिभाषा: वर्तनी शब्द का अर्थ है- अनुसरण करना, अर्थात पीछे-पीछे चलना। भाषा के उच्चरित रूप या बोलने में जो कहा जाता है अथवा उच्चरित किया जाता है, उसी के अनुरूप या अनुसार लिखा भी जाता है; इसे ही वर्तनी कहते हैं। भाषा का लिखित रूप वर्तनी की सहायता लेता है। अतः भाषा के उच्चरित रूप को उसी रूप में लिपिबद्ध करना ‘वर्तनी’ कहलाता है।
लिखने की रीति को ‘वर्तनी‘ या ‘अक्षरी‘ कहते हैं। इसे ‘हिज्जे‘ भी कहा जाता है। वर्तनी का सीधा संबंध ‘भाषागत ध्वनियों के उच्चारण’ से होता है।
• हिन्दी में जो बोला जाता है वही लिखा जाता है।
• व्याकरण संबंधी ज्ञान की कमी के कारण उच्चारण में अशुद्धियां आ जाती है।
• उच्चारणगत् त्रुटियों का कारण है – उच्चारण-स्थल का सही ज्ञान न होना उच्चारण
• वर्तनी का सबसे बड़ा आधार है– लिखने की रीति को वर्तनी
• किसी भी भाषा में वर्तनी की एकरूपता स्थिर की जाती है -ध्वनियों को सही ढंग से उच्चरित करने के लिए
• वर्तनी का सीधा सम्बन्ध है -भाषागत ध्वनियों के उच्चारण से
• बोलते समय उच्चारण की स्पष्टता के लिए किसी अक्षर पर विशेष बल देने की क्रिया को कहते हैं – बलाघात
• वर्तनी से तात्पर्य है- शब्दों में वर्णों का सुनिश्चित क्रम |
वर्तनी का महत्व
वर्तनी की एकरूपता
वर्तनी की एकरूपता से भाषा का मानक रूप स्थायी बनता है तथा इसमें भ्रांतियों के अवसर नहीं रहते हैं।
वर्तनी की सहायता से भाषा लिखित रूप प्राप्त करती है। यदि वर्तनी अशुद्ध हो तो स्वाभाविक है, कि भाषा भी अशुद्ध होगी तथा इससे भाषा की मानकता प्रभावित होगी।
वर्तनी में अनुद्धि के विशेष कारण होते हैं। जैसे-
(1.) लिपि के संबंध में पूर्ण ज्ञान न होना,
(2.) व्याकरण का ज्ञान न होना,
(3.) शुद्ध उच्चारण न करना आदि
हिंदी वर्तनी के कुछ आवश्यक नियम
(1.) कारक तथा उनके चिह्न (विभक्ति चिह्न)
(2.) निपात-शब्द या अव्यय
(3.) संयुक्त और सहायक क्रिया
संयुक्त क्रिया और सहायक क्रिया को एक साथ नहीं, अपतिु पृथक् लिखना चाहिए। जैसे- (क) मोहन जा सकता था। (ख) वे आ सकते थे।
पूर्वकालिक क्रियाएँ एक शब्द के रूप में मिलाकर लिखते हैं। यथा- खा पीकर, रो रोकर, पढ़कर, सोकर
कभी-कभी इनके बीच में योजक का प्रयोग अधिक स्पष्टता के लिए किया जाता है। जैसे- पढ़-लिखकर, रो-रोकर, खा-पीकर
(4.) योजक चिह्न का प्रयोग
से, सा, जैसा आदि शब्द यदि उपमा या गुणों की समानता प्रकट करने के लिए आते हैं, तो उनमें योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे–
(क) हरिश्चंद्र-सा सत्यवादी।
(ख) लक्ष्मीबाई- जैसी स्त्री।
(ग) द्वंद्व समास में योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- माता-पिता, रात-दिन, भाई-बहन आदि।
प्रायः तत्पुरूष समासों में हाइफन या योजक चिह्न की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे- नगरवासी, बलिवेदी, गंगाजल आदि। यदि भ्रम उत्पन्न होने की संभावना हो, तो हाइफन लगाते हैं जैसे- भू-तत्व।
(5.) संस्कृत से जो तत्सम शब्द हिंदी में आए हैं, उन्हें उसी रूप में लिखा जाना चाहिए। जिन शब्दों को हिंदी में हलंत रहित कर दिया गया है, उनमें संस्कृत के आधार पर पुनः हलंत लगाना आवश्यक नहीं है। यथा
(3.) संयुक्त और सहायक क्रिया
संयुक्त क्रिया और सहायक क्रिया को एक साथ नहीं, अपतिु पृथक् लिखना चाहिए। जैसे- (क) मोहन जा सकता था। (ख) वे आ सकते थे।
पूर्वकालिक क्रियाएँ एक शब्द के रूप में मिलाकर लिखते हैं। यथा- खा पीकर, रो रोकर, पढ़कर, सोकर
कभी-कभी इनके बीच में योजक का प्रयोग अधिक स्पष्टता के लिए किया जाता है। जैसे- पढ़-लिखकर, रो-रोकर, खा-पीकर
संस्कृत के कुछ तत्सम शब्द, जो उसी रूप में हिंदी में अपनाए गए हैं, उन्हें उसी प्रकार लिखना चाहिए। ब्रह्म, उऋण, गृहीत, अत्यधिक, चिह्न, अनधिकार, प्रदर्शनी आदि।
(6.) अशुद्ध उच्चारण के कारण वर्तनी की अशुद्धियाँ
(1.) इ-ई से संबंधित
(2.) उ-ऊ से संबंधित – रूप (रूप), गुरू (गुरू)
(3.) स के स्थान पर श – प्रसाद (प्रशाद), शासक (शाशक)
(4.) श के स्थान पर स – शायद (सायद), शब्द (सब्द)
इनमें कोष्ठक में लिखे रूप अशुद्ध हैं।
(5.) ण के स्थान पर न – प्रनाम, गुन (यहां ध्यान रखना चाहिए कि ‘ण‘ का प्रयोग संस्कृत के तत्सम शब्दों में होता है और ‘न‘ का प्रयोग हिंदी में तद्भव शब्दों में किया जाता है।)
(6.) व के स्थान पर ब – ब्यापार, बीणा, बर्षा।
(7.) ढ और ढ़ का प्रयोग – ढ़ का प्रयोग प्रायः शब्द के आरंभ में नहीं होता है। जैसे- पढ़ना, गढ़ना।
(8.) ई-यी-ई के उच्चारण के कारण कुछ शब्दों के अंत में ‘यी’ के स्थान पर ‘ई’ का प्रयोग होता है; जबकि होना ‘यी’ ही चाहिए। जैसे- स्थायी, वाजपेयी, उत्तरदायी आदि।
(9.) इ और ई- वाक्य के अंत में यदि ‘ई’ के बाद कुछ जोड़ा जाए और यदि शब्द बहुवचन बने, तो ई को इ बना देते हैं। जैसे- लड़की लड़कियाँ विद्यार्थी विद्यार्थियों
(10.) उ और ऊ- इसी प्रकार वाक्य के अंत में यदि ‘ऊ’ के बाद कुछ जोड़ा जाए तो ‘ऊ’ का ‘उ’ हो जाता है। जैसे- साधू-साधुओं, डाकू-डाकुओं
(7.) अनुनासिक और अनुस्वार
अब अनुनासिक का प्रयोग अधिकांशतः उन शब्दों में किया जाता है, जिनमें शिरोरेखा के ऊपर कोई और मात्रा नहीं लगाई जाती है। जैसे- हँसना, ऊँगली, आँख, गँवार, साँस, ऊँट आदि।
यदि शिरोरेखा के ऊपर अन्य मात्रा लगाई गई हो, तो अनुस्वार के स्थान पर अनुनासिक का प्रयोग किया जाता है। जैसे- मैँ को मैं, ईँधन को ईंधन, सेँकना को सेंकना
(8.) श, स और ष के प्रयोग में अशुद्धियाँ
‘श’ की ध्वनि तालव्य है, ‘ष’ की ध्वनि मूर्धन्य है और ‘स’ की ध्वनि दंत्य है। अतः इनके शुद्ध उच्चारण से वर्तनी की अशुद्धि दूर की जा सकती है। निम्न नियमों को ध्यान में रखकर इनके सही प्रयोग को जान लेना चाहिए-
(1.) यदि क, ख, प, फ तथा ट और ठ वर्णों से पहले विसर्ग हो, तो वह ‘ष‘ में बदल जाता है। जैसे- निः + पाप = निष्पाप, निः + फल = निष्फल
(2.) यदि ‘क’ वर्ग तथा ‘अ’ और ‘आ’ को छोड़कर कोई अन्य स्वर अथवा य, र, ल, व, ह में से कोई वर्ण हो तो ‘स’, ‘ष’ में बदल जाता है। जैसे – वि + सम = विषम, अभि + सेक = अभिषेक।
(3.) संस्कृत के तत्सम शब्दों का ‘श’ तद्भव में ‘स’ बन जाता है। जैसे- शूली-सूली
(4.) ‘च’ और ‘छ’ वर्ण से पहले प्रायः ‘श’ का ही प्रयोग होता है। जैसे – निश्च्छल, निश्चय।
(5.) इसी प्रकार ऋ के बाद तथा ‘ट’ वर्ग से पहले ‘ष’ ही आता है। जैसे- ऋषि, कृषि, कष्ट, दुष्ट, अन्वेषण, षडानन आदि।
(6.) शब्द और पदों में यदि ‘श’, ‘ष’ और ‘स’ साथ हों, तो उनका क्रम वर्णमाला के ही अनुसार होता है। जैसे- शासक, प्रशंसा, शोषण।
(7.) ‘ष’ का प्रयोग प्रायः संस्कृत के पदों और मूल धातुओं में मिलता है। यथा- संतोष, भाषा, शिष्ट, षटकोण।
(8.) समस्त पदों में यदि दो से अधिक शब्द साथ हों, तो योजक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- राज-भक्ति, जन्म-दिन, गृह-विज्ञान और मन-वचन-कर्म, रवि-शशि-नक्षत्र।
(9.) द्वित्व अक्षरों की अशुद्धियाँ
सभी वर्णों के दूसरे और चैथे अक्षर द्वित्व रूप में नहीं लिखे जाते हैं। जैसे-
सामान्य अशुद्धियाँ | Ashudh or Shudh Vartani
(1.) अनुस्वार संबंधी
(2.) अनुनासिक संबंधी अशुद्धियाँ
(3.) अक्षर संबंधी अशुद्धियाँ
(I.) ई और यी की अशुद्धियाँ
(II.) मात्रा और अक्षर संबंधी अशुद्धियाँ
(III.) श्, ष्, स् लगाने की अशुद्धियाँ
(IV.) संधि संबंधी अशुद्धियाँ
DenverSingh